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शायद दो साल पहले की बात है। सुबह तैयार हो कर दफ्तर के लिए निकला तो हवा खुशगबार थी। यूं वक्त का दबाव हमेशा बना रहता है, लेकिन उस दिन हवा में कुछ अलग तरह की तरंग थी। जैसे सुबह और शाम के संधिकाल का स्वभाव दिन और रात के स्वभाव से अलग होता है, वैसा ही शायद मौसमों के बदलने के दौरान भी होता है। एक तरह का संक्रमण और अनिश्चय। वह तरंग कुछ ऐसी थी जिसमें से कुछ नया निकलने की संभावना प्रतीत होती थी। लोकल ट्रेन में चढ़ा तो धर्मशाला से बड़े भाई का फोन आया। कान से लगाया तो ढोल की ताल और मनुष्य स्वर की तान, घाटी में से निकलती हुई सी। उसके पीछे सारंगी की तरह अनुगूंज पैदा करती एक सहधर्मी आवाज और कोई दो मिनट यह संगीत कानों के जरिए रक्त में घुलता रहा। फिर भाई साहब बोले ”मैं सोच्या नौएं म्हीने दा नां तू भी सुणी लैह्” मेरे भीतर एक साथ कई कुछ झंकृत हो गया और फिल्म के दृश्यों की तरह कई दृश्य एक साथ आंखों के सामने से गुजर गए। करीब तीन दशक पहले के जीवन के दृश्य।
त्योहारों उत्सवों पर गायन-वादन। कोई शोर शराबा नहीं, सादगी और थोड़े संकोच के साथ। ढोलरू गायन की कला समाज के उस तबके ने साधी थी जिसके पास किसी तरह की सत्ता नहीं थी। वह द्वार-द्वार जाकर आगत का स्वागत करता है। भविष्य का स्वागत गान। आज जब पहली जनवरी आती है तो आधी रात को कर्णभेदी नाद हमें झिंझोड़ देता है। मीडिया का व्यापार-प्रेरित उन्माद हमें सत्ताच्युत करता जाता है। लगता है हम कहीं जाकर छुप जाएं या किसी अंधकूप में समा जाएं और ढोलरू गाने वाला कितने संकोच के साथ हमारे लिए भविष्य का गायन कर रहा होता है। ढोलरू के प्रचलित बोल भी विनम्रता और कृतज्ञता से भरे हैं। दुनिया बनाने वाले का नाम पहले लो.. दुनिया दिखाने वाले माता पिता का नाम पहले लो.. दीन दुनिया का ज्ञान देने वाले गुरू का नाम पहले लो.. उसके बाद बाकी नाम लो। नए वर्ष के महीनों की बही तो उसके बाद खुलेगी। हमारे कृषि-प्रधान समाज में तकरीबन हर जगह त्योहार इसी तरह मनाए जाते हैं जिनमें प्रकृति के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जाती है और मनुष्य के साथ उसका तालमेल बिठाया जाता है। लगता है कि त्योहार मनाने के ये तरीके किसी शास्त्र ने नहीं रचे. ये लोक जीवन की सहज अभिव्यक्तियां हैं जो सदियों में ढली हैं।
अब चूंकि समाज आमूल-चूल बदल रहा है और तेजी से बदल रहा है। कृषि समाज और उससे जुड़े मूल्य बदल रहे हैं, जीवन शैली बदल रही है। बदलने में कोई हर्ज नहीं है, बदलना तो प्रकृति का नियम है, पर बदलने में पिछला सब कुछ नए में रूपांतरित नहीं हो रहा है। पिछला या तो टूट रहा है या छूट रहा है। जोर के सांस्कृतिक आघात लग रहे हैं। उसकी मरहम पट्टी या उपचार का सामान हमारे पास है नहीं और जल्दबाजी में पुराने को नकारा मानकर हम छोड़ दे रहे हैं जो नया हमारे ऊपर थोपा जा रहा है, वो हमारी मूल्य चेतना में अटता नहीं। ऐसे में एक तरह का अधूरापन, असंतोष और क्षोभ घर करने लगता है। यह कार्य-व्यापार हमारी सामूहिक चेतना को भी आहत करता है और हम सांस्कृतिक रूप से थोड़े दरिद्र भी होते हैं। अगर हम ढोलरू जैसी परंपराओं का नकली और भोंडा पालन करने से बचें, फैशनेबल और व्यापारिक इस्तेमाल न करें, बल्कि उन्हें दिल के करीब रख सकें, थोड़ा दुलार और प्यार दे सकें तो शायद परिवर्तन के झटके को सहन करने की ताकत जुटा सकें। जैसे भले ही टेलिफोन पर ही सही, ढोलरू के बोल सुनकर मेरे पैरों में पंख लग जाते हैं।
-अनुप सेठी
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