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चंबा। अपनी मर्ज़ी से कहां अपने सफर के हम हैं, रुख हवाओं का जिधर का है, उधर के हम हैं। हवाओं के रुख के कुछ इसी बदलाव को जीती है जिले की जनजातिय आबादी। ताले लगे घर, इक्का-दुक्का लोग और दूर तक फैली बर्फ की सफेदी, यही दृश्य कबायली क्षेत्रों की जिंदगी का आधा सच है। बर्फबारी के बाद की दुश्वारियां लोगों को यहां से चले जाने को आमादा कर देती हैं। देखने में मनमोहक दिखने वाली सफेद बर्फ ही है जो कबायली क्षेत्रों के बाशिंदों को दोहरी जिंदगी जीने को मजबूर कर देती है। दो घर बनाना यहां के लोगों की मजबूरी है वरना बर्फ की कैद में महीनों बंदी बने रहना ही इसकी परिणीति है।
खुद के भोजन पानी ही नहीं मवेशियों के लिए चारे-पानी का जुगाड़ करना तक दूभर हो जाता है और बर्फ में खो जाने वाली पगडंड़ियों में कहीं भटक गए तो फिर आपका नसीब ही है। ग्रामीण परिवेश के ढलानदार मजबूत घरों को राम भरोसे छोड़ आबादी का बाहुल्य निचले जिलों को निकल जाता है। यहां कुछ फीसदी लोग तथा व्यापारी लोग ही इस दौरान डटे रहते हैं। मेहनतकश प्रवृति के यहां के लोग जहां कबायली क्षेत्रों में अपने प्रवास में खासी मेहनत करते हैं तो वहीं निचले क्षेत्रों में पलायन के साथ इनकी जीवनशैली आरामप्रद हो जाती है।
विरले ही लोग होंगे जो निचले क्षेत्रों में भी खेतीबाड़ी करते हैं। भारी बर्फबारी के दिनों में पांगी 6 माह के लिए शेष विश्व से कट सा जाता है, तो वहीं मौसम की शर्त पर हवाई संपर्क से ही यहां पहुंचा जा सकता है। वहीं शिव की भूमि भरमौर के लोग भी काफी तादाद में निचले क्षेत्रों को चले जाते हैं। चंबा जिले के इन जनजातीय क्षेत्रों के लोग प्रदेश के विभिन्न जिलों के अपने घरों में 4 से 6 माह तक रहने के बाद लौट आते हैं।
जिले के शीत मरुस्थलों में शुमार होली, भरमौर तथा पांगी में लोगों के पलायन के साथ ही सन्नाटा पसरने लगा है। इन कबायली क्षेत्रों के लोग बर्फबारी के चलते नवंबर माह में अपने दूसरे जिलों के घरों में शिफ्ट होने लगते हैं। होली-भरमौर क्षेत्र के लोग करीब-करीब 4 माह के लिए कांगड़ा जिले के नुरपुर, पालमपुर, बैजनाथ, इंदौरा तथा सदवां आदि जबकि पांगी के लोग कुल्लू, चंबा तथा शिमला जिले के अपने घरों में 6 माह के लिए पलायन कर जाते हैं।
आंकड़ों की जुबानी कहें तो करीब 85 फीसदी आबादी पलायन कर जाती है। ज़ाहिर है कि बर्फबारी के दौरान होली, भरमौर तथा पांगी क्षेत्र वीरान से हो जाते हैं। यहां के अधिकतर गांव खाली हो जाते हैं। व्यापारी वर्ग तथा बीस फीसदी आबादी के अलावा ज्यादातर कबायली लोग मैदानी क्षेत्रों को कुच कर जाते हैं। लिहाज़ा अपने जीवन में दो घर बनाना तथा दोहरी जिंदगी जीना कबायली होने का आधा सच है। एक जगह आबाद होने के साथ दूसरी जगह को वीरान और राम भरोसे छोड़ जाना इनके जीवन का अटूट क्रम है।
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