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बेहद हास्यास्पद लगता है जब हमारे सामने खोखली बातों का स्लोगन लेकर महिला सशक्तिकरण के नाम पर एक लंबा जुलूस जा रहा होता है। कम से कम महिला हिंसा निवारण की बात अब बेमानी हो चुकी है। हालात ऐसे बन गए हैं कि हर छह घंटे में एक युवती जिंदा जलाकर या पीट-पीट कर मार दी जाती है या फिर उसे आत्महत्या करने पर मजबूर कर दिया जाता है। हैरानी की बात है कि पूरे दक्षिण एशिया में हर दूसरी महिला किसी न किसी प्रकार की हिंसा का शिकार होती है।
आधी आबादी की इस भयावह स्थिति से चिंतित होकर संयुक्त राष्ट्र ने हर वर्ष 25 नवंबर को महिला हिंसा निवारण दिवस के रूप में मनाने का निश्चय किया ,ताकि महिलाओं के प्रति सामाजिक सोच में बदलाव लाकर इस बुराई के प्रति ठोस कदम उठाए जा सकें, पर अब स्थितियां और भी भयावह हैं। इंटरनेशनल सेंटर फॉर रिसर्च ऑन वूमेन की रिपोर्ट के अनुसार अपने देश में प्रति वर्ष पंद्रह हजार महिलाएं हिंसा का शिकार होती हैं। एक दुःखद सच यह भी है कि अधिकांश अशिक्षित महिलाएं घरेलू हिंसा का कारण अपनी गलती समझ कर इसे जायज मान लेती हैं जबकि पुरुष इसे अपने पुरुषत्व का परिचायक मानते हैं।
अफसोस है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत को एक शोध रिपोर्ट के जरिए महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित देशों में चौथा स्थान प्राप्त है। यह सर्वे 2011 में टॉयसन रायटर्स लॉ फाउंडेशन का था। इस रिपोर्ट के आते ही हंगामा मच गया क्योंकि भारत की छवि स्त्रियों को सम्मान देने की बनी रही है। इस चौंकाने वाले सर्वे की चीर-फाड़ होती, उससे पहले ही देश भर में एक के बाद एक नाबालिग लड़कियों, बेबस महिलाओं और बच्चियों के साथ दिल दहला देने वाली शर्मनाक व दरिंदगी भरे बलात्कार की घटनाओं ने फाउंडेशन की रिपोर्ट पर अपनी मुहर लगा दी। अब तो यही लगने लगा था कि हमारा देश महिला असुरक्षा को लेकर चौथे नहीं, पहले स्थान पर रखने लायक है।
दिल्ली-उत्तर प्रदेश में होने वाली लगातार बलात्कार और पीड़ित की हत्या की घटनाओं ने देश भर में महिलाओं की वास्तविक स्थिति स्पष्ट कर महिला सशक्तिकरण के दावों की हवा निकाल कर रख दी है। अब तो हिमाचल भी इससे अछूता नहीं बचा है। बलात्कार की इस तरह होने वाली घटनाएं सोचने पर बाध्य करती हैं कि क्या इंसान इतना हैवान हो सकता है कि किसी मासूम की अस्मिता को समूह बनाकर दरिंदगी के साथ तार-तार करे और फिर उसे भयानक मौत के हवाले कर दे। किस संस्कार में पले बढ़े लोग हैं ये…? हालात ये हैं कि बलात्कारी सड़क पर ही नहीं घर में ही तैयार हो चुके हैं और अपनी ही बहनों -बेटियों की जिंदगी तबाह कर रहे हैं। सवाल यही है कि क्या देश- प्रदेश का मानवाधिकार आयोग और राष्ट्रीय व राज्यस्तरीय महिला आयोग इतना पंगु हो चुका है कि उसका विवेक ही शून्य से नीचे चला जाए ?
क्या सत्ता तंत्र इतना बेशर्म हो चुका है कि इन जघन्य घटनाओं को छुटपुट घटनाएं बता कर बेशर्मी से अपना पल्ला झाड़ ले और अपना उत्तरदायित्व मात्र राजनीतिक छींटाकशी तक ही समझ ले…? घृणा होती है ऐसे देश ,समाज और लचर कानून व्यवस्था और पुलिस महकमे के निकम्मेपन से। देश का कोई प्रदेश,महानगर या गांव नहीं बचा है जहां महिलाओं के साथ किसी न किसी तरह का अत्याचार न हो रहा हो। यह अच्छा नहीं हो रहा है और इसकी बहुत बड़ी कीमत भविष्य में देश व समाज को चुकानी होगी।
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