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महाराष्ट्र के देवगड़ तालुक में सी-बीच के किनारे पथरीली ऊंचाई पर कुंकेश्वर मंदिर स्थित है। जो अपनी विशिष्ट वास्तु शैली की वजह से प्रसिद्ध है। एक खूबसूरत लैंडस्केप वाले इस मंदिर की बाहरी दीवार के पास खड़े होकर बड़े आराम से अरबसागर की लहरों को आते जाते देखा जा सकता है।
इस मंदिर का वास्तुशिल्प दक्षिण भारतीय है, पर इस पर कोंकणी वास्तु की छाप स्पष्ट है। कुंकेश्वर मंदिर को सन 1100 में यादव राजाओं के द्वारा बनवाए जाने की बात कही जाती है बाद में इसका पुनर्निमाण छत्रपति शिवाजी ने किया। वे अक्सर यहां भगवान शिव के दर्शनों को आया करते थे। इसे दक्षिण की काशी भी कहा जाता है। शिवरात्रि पर यहां श्रद्धालुओं की भारी भीड़ होती है। कुंकेश्वर मंदिर से जुड़ी हुई एक कहानी अलग सी ही है।
कहते हैं इसका पहला निर्माण एक ईरानी नाविक ने किया था। वह अरब सागर में अपने व्यापारी जहाज में माल लाद कर आया था और अचानक ही तेज तूफान से घिर गया। उसे लगा कि इस तूफान में न तो वह बचेगा और न उसका जहाज। वह मन ही मन ऊपर वाले से सहायता मांगने लगा। अचानक उसे समुद्र तट पर एक रोशनी दिखी और उसने हाथ जोड़ दिए … कहा- मैं नहीं जानता कि तुम कौन हो पर अगर आज तुम मेरी सहायता करोगे और मैं बच जाऊंगा तो तुम्हारा मंदिर बनवाऊंगा। तूफान रुक गया और उसका जहाज भी समुद्र तट तक आ गया। यह सचमुच ईश्वरीय कृपा थी और वह आश्चर्यचकित था। अपने वचन के अनुसार उसने वहां पहले से ही स्थित शिवलिंग के लिए मंदिर बनवाया।
वह मुस्लिम था और जानता था कि उसने जो कुछ किया है इसके बाद उसका धर्म उसे नहीं स्वीकारेगा क्योंकि यह इस्लाम की परंपरा के खिलाफ था। आत्मग्लानि से उसने उसी मंदिर की छत से कूद कर आत्महत्या कर ली। कुंकेश्वर महादेव जागृत हैं… और उनके विशाल मंदिर के पास ही किसी रहस्य की तरह एक समाधि मंदिर भी है। यह उसी ईरानी व्यापारी की समाधि है और उसी जगह बनी है जहां वह गिर कर मरा था। यहां अक्सर सन्नाटा फैला रहता है पर इस समाधि पर रोज माला चढ़ी रहती है। लोग दर्शन करते हैं और माथा टेक कर बाहर आ जाते हैं। सभ्यता का इतना सुंदर समन्वय शायद ही कहीं देखने को मिलेगा।
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