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श्री पार्श्वनाथ के निर्वाण के लगभग दो शताब्दी बाद, जैन धर्म की महाविभूति महावीर (Mahavira) का आविर्भाव हुआ। इनकी जन्म तिथि चैत्र शुक्ल त्रयोदशी 618 या 5 99 ईसा पूर्व मानी जाती है। अपने महान पूर्ववर्ती तीर्थंकरों की भांति यह भी राजकुल में ही उत्पन्न हुए थे। मगध (Magadh) के प्रसिद्ध वृजिगण के ज्ञात्रिक कुल में कौंडिन्यपुर के राजा सिद्धार्थ और त्रिशला के यहां इनका जन्म हुआ था। महावीर इनका जन्म नाम नहीं था, यह नाम तो बाद में इनके अनुयायियों द्वारा दिया गया था। राजकुमार के रूप में निगण्ठ, नात पूत, वेसालिए, विदेह और वर्द्धमान आदि नामों से इन्हें पुकारा जाता था। आचारांग सूत्र (2/15/15) के अनुसार इनका विवाह (marriage) यशोदा के साथ हुआ था और इन्हें अणोज्जा या प्रियदर्शना नाम की कन्या भी थी हालांकि इस बात को श्वेतांबर मत स्वीकार करता है, दिगम्बर मत नहीं।
अपने जीवन की तीस वर्ष की आयु में ही वैराग्य (reclusion) धारण कर केश लोचन कर कायोत्सर्ग व्रत का नियम लेकर महावीर कुम्मार नामक गांव में केवल हाथों में ही भिक्षा लेकर दिगम्बर अवस्था में रहे। बारह वर्षों की तप साधना के समय सिर्फ 349 दिन ही उन्होंने अन्न-जल ग्रहण किया और शेष समय निराहार व्यतीत किया। उनके शरीर पर कई जंतु रेंगते रहते थे पर महावीर तप में लीन ही रहे इस कारण उन्हें इसका भान भी नहीं रहता था। तेरहवें वर्ष में ज्रम्भिका ग्राम के समीप ऋजुपालिका नदी के तट पर शाल वृक्ष के नीचे इन्हें कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ, तभी से वे जिन या अर्हत कहलाए। आचारांग सूत्र, कल्पसूत्र आदि जैन ग्रन्थों में इनकी जीवन गाथा के प्रामाणिक विवरण उपलब्ध है।
ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय एवम अंतराय नामक चार प्रकार के घातीय कर्मों तथा आयु नाम गौत्र एवं वेदनीय नामक चार प्रकार के अघातीय कर्मो का अहिंसा सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य इन पांच व्रतों तथा क्षमा मृदुता सरलता शौच्य सत्य संयम तप त्याग औदासिन्य एवम ब्रह्मचर्य नामक दस उत्तम धर्मो के परिपालन से आत्मोद्धार की ओर अग्रसर हो पुनः संसार में लौटकर नहीं आते। वह अनंतकाल तक सिद्ध शिला पर वास करने के अधिकारी बन जाते हैं। इस स्थिति तक पहुंचकर ऊपर उठने वाले ही तीर्थंकर कहलाते हैं। वर्धमान महावीर और उनके पहले के पार्श्व आदि पुरुष ऐसे ही सिद्ध महात्मा थे। आचार मुलक जीवन दर्शन प्रणाली का नाम ही जैन धर्म है।
दुःखों को आत्यन्तिक निवृत्ति का उद्देश्य लिए देह ओर अन्तःकरण की शुद्धि परमावश्यक कर्त्तव्य के रूप में स्वीकार की गई है। सम्यक दर्शन सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र रूपी त्रिरत्नो की प्राप्ति के महान लक्ष्य में यही आदर्श निहित है। परन्तु संसार को जैन धर्म (Jainism) और उसके महान प्रकाश स्तम्भ वर्धमान महावीर की सबसे बड़ी देन है तो वह है अहिंसा का सिद्धांत जो उनके जीवन दर्शन की मुख्य प्रतिपादित धुरी है। भौतिक उन्नति के चरम शिखर की ओर अग्रसर होकर भी आज मानव परमाणु अस्त्रों का अंबार रचते हुए सर्वनाश के अतल स्पर्शी कगार पर खड़ा हुआ है। इस विषम क्षण में अहिंसा (Nonviolence) के इस अमोघ अस्त्र सिवा परित्राण का हमारे लिए दूसरा उपाय ही क्या है? अहिंसा का जो स्वप्न आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व जैन धर्म की महावीर द्वारा संजोया गया था। इसमे कोई संदेह नहीं कि महावीर की इस शिक्षा में विश्व शांति की कुंजी निहित है।
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