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जनवरी की 24 तारीख बालिकाओं को समर्पित है। सुनकर -सोच कर अच्छा लगता है। सरकार की तरफ से इस दिवस के तहत बहुत सारे विषय निर्धारित किए गए। उनके प्रति फैली हर क्षेत्र में असमानता ,पोषण ,कानूनी अधिकार, चिकित्सकीय देख रेख सुरक्षा और सम्मान इसके मुख्य बिंदू थे। यह जरूरी समझा गया कि लड़कियों को एक सशक्त, सुरक्षित और बेहतर माहौल मिले। उन्हें अपने जीवन की हर सच्चाई और अधिकार से अवगत होना चाहिए। इन सारी बातों को ध्यान में रखते हुए सरकारी तौर पर जाने कितनी योजनाएं बनीं और अमल में भी लाई गईं।
पिछले कुछ साल में कन्या भ्रूण हत्या बड़े पैमाने पर हुई। इसे देखते हुए सख्त कानून बने। रेडियो ,टीवी और अखबारों के जरिए लोगों को समझाने की कोशिश की गई कि बालिकाओं को भी जन्म लेने का अधिकार है। हैरत की बात थी कि इतनी कोशिशों के बाद भी कोई माकूल सुधार आता नहीं दिखा। हां, भ्रूण हत्याओं का ग्राफ अवश्य कुछ अंशों में नीचे आया पर सिलसिला रुका नहीं । कन्याओं को गर्भ में ही किसी न किसी तरह खत्म कर देना या जन्म लेने के बाद मार दिए जाने की कहानियां आम हैं। परिवार में आज भी उनकी स्थिति दोयम दर्जे की ही है उसे बेहतर वातावरण नहीं दिया जाता। समाज कितना ही अपने विकसित होने का दंभ भर ले पर सच यही है कि उसकी मानसिकता विकृत हो चुकी है।
बालिकाओं के विकास को लेकर अभियान चला लिए जाएं पर अगर सोच नहीं बदलती तो सब व्यर्थ है। आज जब स्त्री स्वावलंबी है और हर क्षेत्र में सफलता से कार्य कर रही है तो भी सम्मान और सुरक्षा की दृष्टि से असहाय है। वह कहीं भी सुरक्षित नहीं है न घर में न स्कूल में न सड़क पर। दिन-प्रतिदिन छेड़छाड़ और बलात्कार का शिकार होती हैं लड़कियां। शर्मिंदगी तो इस बात की है कि ऐसे लोग भी हैं जो अपनी ही बेटी का बलात्कार कर देते हैं। और अब तो एक नया ट्रेंड विकसित हो गया है कि सामूहिक बलात्कार के बाद लड़की की हत्या कर दो फिर सारे सबूत खत्म और जेल जाने से छुट्टी। अगर ऐसे किसी मामले की रिपोर्ट होती भी है तो मामला निपटाने में चार से छह साल लग जाते हैं। सवाल यह है कि क्या केंद्र या राज्य सरकार ऐसे मामलों पर रोक लगा सकेगी या फिर पूरे समाज और सरकार को मिलकर इस समस्या से लड़ना होगा।
दरअसल इसकी शुरुआत परिवार से ही होती है जहां लड़कियों को सहनशील होना सिखाया जाता है और लड़कों को मनमाना करने की खुली छूट दी जाती है। विभाजन का यही बीज आगे चलकर वृक्ष बनता है और स्त्रियों के प्रति अपमान की मानसिक विकृति को जन्म देता है। मात्र कड़ी सजा का प्रावधान कर देने से विकृत मानसिकता नहीं बदलने वाली। इसके इलाज की प्रक्रिया जन्म से ही आरंभ होनी चाहिए। और यह जिम्मेदारी माता पिता और परिवार पर है। सबसे पहले तो परिवार और समाज में उन्हें दोयम दर्जे का मानना बंद कर देना चाहिए। इसके अलावा उन्हें समान रूप से शिक्षा, पोषण तथा सुरक्षा भी देना अपरिहार्य है। शिक्षा तो बालिकाएं तब प्राप्त करेंगी जब इन दैत्यों से सुरक्षित बचेंगी और आप उन्हें बचाने और पढ़ाने की बात करते हैं। आखिर बालिकाओं की स्थिति इतनी असुरक्षित कैसे हो गई? क्या बलिका होना भारतीय संस्कृति में हीनता का पर्याय है ? अगर ऐसा है तो समझ लें कि हम एक संपूर्ण विनाश की ओर बढ़ रहे हैं
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