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मध्ययुगीन साधकों में रविदास का विशिष्ट स्थान है। कबीर की तरह रविदास भी संत कोटि के प्रमुख कवियों में शीर्ष स्थान रखते हैं। कबीर ने ‘संतन में रविदास’ कहकर इन्हें मान्यता दी है।रविदास एक महान संत, दार्शनिक, कवि, समाज सुधारक और भगवान के भक्त थे। निर्गुण संप्रदाय के संत रविदासने उत्तरी भारत में भक्ति आंदोलन का नेतृत्व किया। अपनी रचनाओं के माध्यम से उन्होंने जो धार्मिक और सामाजिक संदेश दिया, वह अद्भुत था।
मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा जैसे दिखावों में उनका बिल्कुल भी विश्वास न था। वह व्यक्ति की आंतरिक भावनाओं और आपसी भाईचारे को ही सच्चा धर्म मानते थे। उन्होंने अपनी काव्य-रचनाओं में सरल, व्यावहारिक ब्रजभाषा का प्रयोग किया है, जिसमें अवधी, राजस्थानी, खड़ी बोली और उर्दू-फ़ारसी के शब्दों का भी मिश्रण है। रविदास को उपमा और रूपक अलंकार विशेष प्रिय रहे हैं। सीधे-सादे पदों में संत कवि ने हृदय के भाव बड़ी सफाई से प्रकट किए हैं। इनका आत्मनिवेदन, दैन्य भाव और सहज भक्ति पाठक के हृदय को उद्वेलित करते हैं। इनके चालीस पद सिखों के पवित्र धर्मग्रंथ ‘गुरुग्रंथ साहब’ में भी सम्मिलित हैं। कहते हैं मीराबाई केआध्यात्मिक गुरु रविदास ही थे। उनका निधन 120 या 126 की आयु में वाराणसी में हुआ।
अब कैसे छूटे राम रट लागी।
प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी, जाकी अंग-अंग बास समानी॥
प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा॥
प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती॥
प्रभु जी, तुम मोती, हम धागा जैसे सोनहिं मिलत सोहागा॥
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