आखिर क्या है स्लीप पैरालिसिस ….
Update: Tuesday, May 8, 2018 @ 9:32 AM
कई हजार लोगों में कुछके ऐसे अनुभव भी रहे हैं कि किसी दिन उन्होंने महसूस किया कि वे अपने शरीर से बाहर थे और हल्के हो कर हवा में तैर रहे थे। वे अपना शरीर पड़ा हुआ देख रहे थे और वह सब कुछ भी खुली आंखों से देख रहे थे, जो वहां हो रहा था। इनमें से कुछ तो वे थे, जो उसी समय सोने को थे और कुछ ऐसे थे जिनकी नींद का यह पहला चरण था। वे गहरी नींद में नहीं थे बल्कि यह कहें, कि यह आधी नींद आधी जाग की स्थिति थी। आप इसे स्लीप पैरालिसिस भी कह सकते हैं।
इसी प्रकार का अनुभव कुछ अन्य लोगों को तब हुआ जो उस समय मरणासन्न अवस्था में थे और मृत्यु के गंभीर कष्ट से गुजर रहे थे। ऐसे अनुभव लोगों को डूबते समय भी हुए अथवा तब, जब उनका बड़ा आपरेशन किया जा रहा था। कुछ ने शरीर में वापस लौटने के बाद अपने अनुभव इस तरह बताए, कि उन्होंने खुद को एक संकरी सुरंग से गुजरते हुए देखा। वहां उन्हें अशरीरी आवाजें सुनाई दीं और बहुत सारी पारदर्शी चमकती हुई आकृतियां दिखाई दीं। कुछ के सामने उनके अपने जीवन की घटनाएं सिनेमा की रील की तरह गुजर गईं।

अगर गौर करें तो यह ल्यूसिड ड्रीम से अलग स्थिति है । कोई भी जब बिना सावधान रहे गहरी नींद सो जाता है तो उसका शरीर तो गहरे ट्रांस में चला जाता है परंतु दिमाग अपनी गतिविधियां चलाने के लिए पूरी तरह स्वतंत्र रहता है। कई लोगों को इसी दौरान नए लेखन तथा नई पेंटिंग बनाने की प्रेरणा मिली है।
कई आविष्कारों का भी जन्म इसी स्थिति का परिणाम है। मनोविज्ञान के स्तर पर इसे न्यूरोलॉजिकल फैक्ट के तौर पर देखा गया, जब कि परामनोविज्ञानियों का कहना था कि आत्मा अपने को शरीर से अलग कर सकती है और दूरस्थ स्थानों की यात्रा भी कर सकती है। यह तब होता है जब मानवीय चेतना शरीर का साथ छोड़ कर पारदर्शी रूप में शरीर से बाहर हो जाती है।

वैसे देखें तो क्या हम अपने स्वप्नों में शरीर से बाहर नहीं होते? इसके बावजूद उन्हें इस तरह के अनुभवों में शामिल नहीं किया जा सकता। ये असाधारण अनुभव हैं और इनका साक्षात्कार भी कम ही लोगों को होता है इसके अलावा ये स्वप्न से अधिक वास्तविक हैं ।
शरीर से बाहर निकलने के बाद भी इनके एहसास शरीर जैसे ही रहते हैं। उनमें ऊर्जा भी होती है और वे हर तरह के वाइब्रेशन को महसूस कर लेते हैं। स्थान वातावरण और कभी-कभी दिख रही आकृतियों को पहचान लेते हैं तथा कानों में आ रही हर आवाज को सुनते-समझते हैं। सत्यता यही है कि जब हम एक ऐसे संसार के संपर्क में आते हैं जो वैसा ही होता है जिसमें हम रहते हैं तो हमारा मन उसे आसानी से स्वीकार कर लेता है।