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देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। कुछ राजनीतिक दलों ने अपने उम्मीदवारों का ऐलान किया और कुछ अभी मंथन कर रहे हैं कि किसे टिकट दिया जाए। यानी कुल मिलाकर कहा जाए तो चुनावी सरगर्मियां चरम पर है।इसके बाद अब चरणबद्ध तरीके से नामांकन भरने की प्रक्रिया भी शुरू होगी। आजकल चुनाव ईवीएम से होते हैं और इससे पहले बलेट पेपर से होते थे। चलिए आज उस जमाने की बात आप को बताते हैं जब चुनाव बैलेट पेपर से होते थे। मामला हमारे देश के दक्षिणा राज्य तमिलनाडु का है। यहां पर एक बार एक सीट पर इतने निर्दलीय उम्मीदवार चुनावी मैदान में उतर आए कि चुनाव आयोग को मतदान की तारीख आगे बढ़ानी पड़ी साथ ही कई पेज वाला बैलेट पेपर छपा। ये मात्र बैलेट पेपर नहीं पूरी किताब ही थी।
वर्ष 1996 का यह चुनाव इतिहास का सबसे खास माना जाता है। तमिलनाडू में विधानसभा के चुनाव होने थे लेकिन राज्य की मोदाकुरिची विधानसभा सीट पर से 100-200 ने नहीं बल्कि हजार से ज्यादा लोगों ने नामांकन पत्र दाखिल कर दिया। यहां 1033 लोगों ने अपने दावेदारी प्रस्तुत की। वैसे प्रत्याशियों की संख्या 1088 थी, जिसमें से 42 रिजेक्ट हुए और 13 ने नाम वापस ले लिए। इतने लोगों के नामांकन आने के बाद चुनाव आयोग को दिक्कत हुई। लोकतंत्र में सभी को चुनाव लड़ने का अधिकार है, ऐसे में इतने सारे लोगों के चुनावी मैदान में खड़े होने के बाद सबसे पहले आयोग ने चुनाव एक महीने आगे बढ़ा दिया।
द हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार इसके पीछे कारण यह माना जाता है कि चुनाव आयोग को तैयारी के लिए कुछ समय चाहिए था ताकि सही ढंग से व्यवस्था हो। वो बैलेट पेपर का जमाना था। आम तौर पर बैलेट पेपर 1-2 पेज के होते थे, लेकिन इस चुनाव में तो कई पेज वाला बैलेट पेपर छपा। देखने वो एक वो बैलेट पेपर नहीं बल्कि पूरी किताब ही थी। जरा कल्पना कीजिए जिसने भी इस बैलेट पेपर पर वोट दिया होगा उसे अपने प्रत्याशी का नाम खोजने में कितना मशक्कत करना पड़ी होगी। इसके अलावा चुनाव आयोग ने जमानत राशि को भी बढ़ा दिया था। रिपोर्ट के अनुसार, आयोग ने अनरक्षित के लिए 250 रुपये और एससी-एसटी के लिए 125 रुपये जमानत राशि तय की थी। साथ ही बैलेट पेपर की साइज बढ़ाया था और मतदाताओं को पूरा बैलेट पेपर पढ़ने के लिए टाइम भी दिया गया। साथ ही पोलिंग टाइम को भी बढ़ाना पड़ा । जब बैलेट पेपर किताब था तो मत पेटियां भी खास तौर पर डिजाइन की गई, जो साइज में काफी बड़ी थी।
अब बात करते हैं चुनावी रिजल्ट की। फैक्टली की एक रिपोर्ट के अनुसार, उस चुनाव में 88 उम्मीदवार तो ऐसे थे, जिन्हें एक भी वोट नहीं मिला था यानी उन्होंने खुद को भी वोट नहीं दिया था। वहीं, 158 उम्मीदवार ऐसे थे, जिन्हें सिर्फ एक वोट मिला । कई उम्मीदवार दिहाई के आंकड़े तक ही सीमित थे, इस वजह से इस चुनाव के तो नतीजे भी काफी रोचक रहे थे। सवाल यह है कि इतने लोगों को चुनावी मैदैन में खड़े होने की जरूरत क्यों आन पड़ी। कहा जाता है कि उस वक्त किसान फेडरेशन नाराज चल रहे थे और वो सरकार का ध्यान अपनी मांगों की ओर आकर्षित करना चाहता था। इस वजह से कई किसानों ने चुनाव लड़ने का फैसला किया ताकि सरकार उनकी मांगों के बारे में सोचे। इस वजह से बड़ी संख्या में लोगों ने चुनाव लड़ा था।
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