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“आया राम गया राम” से भारतीय राजनीति का गिरता स्तर
हरियाणा में एक विधायक जिनका नाम गया लाल था, उन्होंने 1967 में सिर्फ एक दिन में तीन पार्टियां बदली, जिससे “आया राम गया राम” कहावत भारतीय राजनीति में दल बदल के लिए प्रसिद्ध हो गई। आज हिमाचल की राजनीति के संदर्भ में यह कहावत इतिहास में सबसे तार्किक नजर आ रही है। आये दिन किसी नेता की पार्टी बदलने की सूचना अखबारों में छप जाती है। सुबह उठते ही हम लोग अखबारों में सबसे पहले यही खबर ढूंढते है, कि किस दल का कौन नेता पार्टी छोड़ कर दूसरी पार्टी में शामिल हो गया। इस आया राम गया राम की बढ़ती संस्कृति ने भारतीय राजनीति पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा दिया है। क्या राजनीति या राजनेताओं की कोई नैतिकता बच गई है? क्या राजनीतिक विचारधारा के कोई मायने आज रह गए है? और क्या आज नेता खुले बाजार में एक वस्तु की तरह बैठ गया है जिसे कोई भी आकर बोली लगा कर खरीद सकता है? ये कोई साधारण प्रश्न नहीं अपितु हमारी लोकतांत्रिक आत्मा को झकझोरने वाले प्रश्न है जिन पर आज यदि हमने ठहर कर नहीं सोचा तो शायद आने वाले वक्त में ना लोकतंत्र बचेगा ना ही लोकतंत्र पर नागरिकों की आस्था।
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वास्तव में लोकतंत्र में दल एक विशेष राजनीतिक विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है, और वह विचारधारा उस दल विशेष की समाज एवं व्यवस्था के निर्माण के प्रति समझ को दर्शाता है और उस समझ के आधार पर दल नई व्यवस्था का खाका प्रस्तुत करता है। आधुनिक काल में लोकतंत्र की स्थापना के साथ राजनीति एवं समाज के व्यवस्थिकरण के लिए आधुनिक विचारधाराओं की स्थापना हुई जिन्होंने अलग अलग दृष्टिकोण से सामाजिक निर्माण के विचार को प्रस्तुत किया। पूंजीवाद, समाजवाद, उदारवाद, साम्यवाद जैसी विचारधाराओं ने यूरोप के इतिहास को नई दिशा दी और बड़े बड़े परिवर्तनों को सुनिश्चित किया, चाहे वो इंग्लैड की 1688 की शानदार क्रांति हो, फ्रांस की 1789 की क्रांति हो, रूस की 1917 की क्रांति हो या भारत का स्वतंत्रता आंदोलन हो जिसमें सांस्कृतिक राष्ट्रवाद बनाम राजनीतिक राष्ट्रवाद की बहस से तय हुआ कि किस तरह का राष्ट्र हमें चाहिए।
स्वतंत्रता के उपरांत भी जननेताओं ने वैचारिक प्रतिबद्धता को संजोया और भारत को दुनिया का सबसे बड़ा एवं खूबसूरत लोकतंत्र बनाया। जिस तरह की राजनीतिक संस्कृति आज विकसित हो रही है, उससे तो अंग्रेजो के भारत छोड़ने के समय के कथन कि “लोकतांत्रिक व्यवस्था भारत के अनपढ़ लोगो के लिए कभी सफल नहीं हो सकती” को आज सत्यापित कर दिया है।
आज हमने नैतिकता को राजनीति से विशुद्ध रूप में अलग कर दिया है। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के सबसे बड़े नायक और राजनेता महात्मा गांधी ने राजनीति को उच्च नैतिक आदर्शो से जोड़ने की बात कही। उनका मानना था कि यदि राजनीति को मानव जीवन के लिए वरदान बनाना है, तो उसे नैतिक होना जरूरी है अन्यथा राजनीति सबसे बड़ा अभिशाप है। आज जो विश्व राजनीति में अस्थिरता, तनाव, युद्ध का वातावरण है उसे संतुलित करने के लिए गांधी के विचारो की सार्थकता को पुनः जागृत करना आवश्यक है।
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यदि हम आज भारतीय राजनीति और विशेषकर हिमाचल प्रदेश की राजनीति में दल बदल की प्रतिदिन की घटनाओं का विश्लेषण करे तो हमें कुछ संरचनात्मक परिवर्तन के कारण यह सस्कृति विकसित होती नजर आती है। आज जो हमारे नेता विचारधारा को छोड़कर सत्ता लोलुप हो कर या विवशता से कभी इस दल कभी उस दल में भटक रहें है, उसका एक विशेष कारण नजर आता है। वास्तव में जब वैचारिक संबद्धता व्यक्तिक संबद्धता में परिवर्तित हो जाती है तो व्यक्ति अपना वैचारिक आधार जिस की वजह से वो किसी दल विशेष या नेता को अपना समर्थन देता है, उसे वो खो देता है और अपने आप को व्यक्ति विशेष से जोड़ देता है। यदि वह नेता नीतियों की विफलता के कारण अपने समर्थितो में अप्रचलित हो जाए तो समर्थक अपनी विवेकशीलता खोकर व्यवस्था को, तर्क को, कोसना शुरू कर देता है और खोई विश्वसनीयता के कारण दल विशेष के विचार को खारिज करके दिशाहीनता की तरफ बढ़ता है। यही क्षण उसे विचारधारा से विमुख करता है और वह भटक जाता है।
आज हमारी राजनीति का परिदृश्य भी इसी तर्क को स्थापित करता नजर आता है। आज हमने व्यक्ति विशेष को विचारधारा से, दल से और राष्ट्र से सर्वोपरि मान लिया है और उसकी विफलता को देश की विफलता से जोड़ दिया है। इस कारण आज विचारधारा एवं राजनीतिक दलों का महत्व धूमिल होता जा रहा है और दल बदल एक सामान्य प्रक्रिया बन गई है।
दूसरा; आज लोकतांत्रिक संस्थाओं का अवमूलन होने की वजह से सत्ताधीशों द्वारा उनका अन्यायोचित प्रयोग करके विधायको एवं नेताओ को दल बदल के लिए विवश किया जा रहा है। व्यक्तिगत नैतिकता खो चुके नेता जांच एजेंसियों के डर से दल और विचार की बलि चढ़ा कर सत्ता के खेल में प्यादे की तरह इस्तेमाल हो रहे है।
भारतीय लोकतंत्र के इतिहास के इस सबसे कठिन समय में राजनीतिक दलों एवं मतदाताओं को आया राम गया राम की इस प्रवृत्ति को रोकने का साहस करना पड़ेगा। 1985 में 52वें संशोधन द्वारा संविधान की दसवीं अनुसूची में दल बदल विरोध कानून को शामिल किया गया था। लेकिन उसकी सार्थकता आज नजर नहीं आ रही। राजनैतिक दलों को सैधान्तिकता के सवाल पर फिर एक बार गंभीरता से मंथन करने की जरूरत है। और मतदाताओं को जागरूक होकर नेताओं की अनैतिक प्रवृति को रोकने का साहस दिखाना पड़ेगा। आज हमें वापिस अपने राजनीतिक मूल्यों को देखने और उनकी सार्थकता को पुनः समझने की जरूरत है।
– डॉ देवेन्द्र शर्मा
असिस्टेंट प्रोफेसर, राजनीति शास्त्र
राजकीय महाविद्यालय चायल–कोटी, शिमला, हिमाचल प्रदेश