-
Advertisement
कोरोना काल में सादे तरीके से मना मुहर्रम, नहीं निकला ताजिया
शिमला। राजधानी शिमला में मुस्लिम समुदाय (Muslim community) के लोगों ने गम का पर्व यान मुहर्रम (Muharram) को सादे तरीके से मनाया। वहीं, कोरोना के दौरान जुलूस और काफिले नहीं निकाले गए। समुदाय ने सिर्फ रस्म अदायगी निभाई। राजधानी के लद्दाखी इमामबाड़े (Laddakhi Imambara) में मुस्लिम समुदाय के लोगों ने सादे तरीके से मुहर्रम की रस्में निभाई।
क्यों मनाया जाता है मुहर्रम
इस्लामिक कैलेंडर (islamic calendar) की शुरुआत मुहर्रम से होती है। शिया मुसलमानों के लिए यह महीना बेहद गम भरा होता है। मुहर्रम की जब बात होती है तो मैदाने ए कर्बला का जिक्र होता है। आज से लगभग 1400 साल पहले तारीख ए इस्लाम में कर्बला के मैदान में जंग हुई थी। इस्लाम के अनुसार ये जंग जुल्म के खिलाफ इंसाफ के लिए लड़ी गई थी। इस जंग में पैगंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन और उनके 72 साथी शहीद हो गए थे। इसलिए कहा जाता है कि हर कर्बला के बाद इस्लाम जिंदा होता है।
दरअसल, मदीना से कुछ दूरी पर मुआविया नामक शासक का दौर था. मुआविया के मृत्यु के बाद उसके बेटे यजीद ने गद्दी संभाली। यजीद बेहद क्रूर था। लोगों के दिलों में उसका खौफ था। लोग उसका नाम सुनते ही कांप उठते थे। पैगंबर मुहम्मद की वफात यजीद इस्लाम को अपने तरीके से चलाना चाहता था। जिसके लिए यजीद ने पैगंबर मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन को उसके मुताबिक चलने को कहा। वहीं, खुद को उनके खलीफे के रूप में स्वीकार करने के लिए कहा। लेकिन इमाम हुसैन ने उसकी बात को मानने से इंकार कर दिया। जिसके बाद मुहर्रम की 10 तारीख को यजीद की फौज ने इमाम हुसैन और उनके साथियों का बड़ी बेरहमी से कत्ल कर दिया। उनमें हुसैन के 6 महीने के बेटे अली असगर, 18 साल के अली अकबर और 7 साल के उनके भतीजे कासिम (हसन के बेटे) भी शहीद हो गए थे।
हिमाचल और देश-दुनिया के ताजा अपडेट के लिए like करे हिमाचल अभी अभी का facebook page