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यह कौन सी दुनिया है जहां मानवता के आंसू इस तरह बहते हैं
निर्वासन के 62 वर्ष पूरे हुए। आधी सदी बीत गई तकलीफें झेलते हुए,पर तिब्बती अपनी संघर्ष यात्रा में जहां से चले थे वहीं पर उनके कदम थमे हुए हैं । समस्या का समाधान तो क्या कोई राह तक निकलती नहीं दिखाई देती। ये हर वर्ष राष्ट्रीय विद्रोह की वर्षगांठ (Tibetan National Uprising Day) मनाते हैं और अपने निर्वासन को याद करते हैं। हालांकि इन हालातों में रहने के बावजूद तिब्बती समुदाय ने उन्नति के कई सोपान तय किए हैं अपनी धार्मिक धरोहरों के संरक्षण और प्रचार में सफल हुए हैं और अंतरराष्ट्रीय समाज इस बात को मानता भी है। धौलाधार के आंचल में बसा हुआ छोटा सा शहर मैक्लोडगंज (Mcleodganj) इन्हीं से गुलजार है और अपनी खूबसूरती से पर्यटकों का आकर्षण बना हुआ है। तिब्बती समुदाय का यह एक ऐसा संसार है जो अपनी संस्कृति और व्यवहार के कारण ही मिनी तिब्बत (Mini Tibet) कहा जाने लगा है। यहां धर्मगुरु महामहिम दलाई लामा (Dalai Lama) का आवास है । नामग्याल मोनेस्ट्री की परम शांति हर व्यक्ति को अपनी ओर खींच लेती है,खासकर संध्या समय जलते हुए असंख्य घृतदीप एक पवित्रता का वातावरण बना देते हैं। वह बीसवीं शताब्दी का वक्त था जब एशिया,अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के बहुत सारे देशों को औपनिवेशिकता से मुक्ति मिली ,पर यह तिब्बत का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि एक स्वतंत्र और तटस्थ राष्ट्र होते हुए भी तिब्बत की स्वतंत्रता छिन गई। कुल 25 लाख वर्ग किलोमीटर और 65 लाख की जनसंख्या वाला तिब्बत, चीन के कम्युनिस्ट राष्ट्र निर्माण का शिकार हुआ।
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1959 में चीनी सेना (China Army) ने तिब्बत की राजधानी ल्हासा व दलाई लामा के आवास पर सीधा हमला किया, तब दलाई लामा ने अपने 80 हजार शरणार्थियों के साथ भारत में शरण ली । उस समय की नेहरू सरकार ने सभी को अतिथि रूप में स्वीकार किया। तब से अब तक लाखों तिब्बती मारे गए हैं। यही नहीं वहां के 6 हजार से अधिक मंदिर-मठ व साधना केंद्र नष्ट कर दिए गए हैं। इन पवित्र स्थानों में या तो चीनियों के आयुध भंडार हैं या फिर उन्हें शौचालयों में परिवर्तित कर दिया गया है,निर्वासन की पीड़ा के बावजूद महामहिम ने भारी ख्याति अर्जित की। तिब्बती समाज में भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का प्रादुर्भाव हुआ है और शिक्षा के क्षेत्र में भी काफी उन्नति हुई है।
गौरतलब है कि तिब्बत अपने ढंग का अकेला ऐसा विलक्षण देश रहा है जहां का जनजीवन दैवी प्रेरणा से संचालित और नियंत्रित होता था। यह भी सच है कि धर्मगुरु अपने साथ वहां से जो आध्यात्मिक विरासत बचा कर ले आए वह भविष्य के लिए मूल्यवान है।योग-ध्यान के क्षेत्र में बौद्ध भिक्षुओं को अपार सफलता मिली है। पुनर्जन्म के क्षेत्र में इन्होंने जो प्रयोग किए हैं वे अध्यात्म जगत में इलेक्ट्रॉनिक क्रांति की तरह ही महत्वपूर्ण हैं। महामहिम का ज्ञान और अध्यात्म के क्षेत्र में उनकी पहुंच उन्हें इतिहास का सर्वोच्च दलाई लामा सिद्ध करती है।संकट से घिरे तिब्बती समुदाय का एक मात्र आसरा यही चेहरा है ..उनकी आशाओं का पुंज । दुःखद यही है कि निर्वासन के आधी सदी से ज्यादा समय बीत जाने के बाद भी कोई सार्थक परिणाम न मिलने से तिब्बती हताश हो चुके हैं। विद्रोह दिवस की इस वर्षगांठ पर भी तिब्बती समुदाय के लोग फिर इकट्ठा होकर अपने निर्वासन के शुरुआती दिनों को याद करेंगे। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो हर साल दोहराई जाती है जबकि तिब्बत की समस्या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ज्वलंत है। खुद अपनी मृत्यु से कुछ दिन पहले जनवरी 1989 में पंचेन लामा ने कहा था कि चीन अधिकृत तिब्बत में तिब्बती जनता पर ढाए गए जुल्मों और वहां हुए विध्वंस की कोई तुलना नहीं की जा सकती । गौर तलब है कि भारत सरकार ने तिब्बती समुदाय के लिए शरणार्थी नहीं अतिथि शब्द का प्रयोग किया ,पर इसके अलावा आधिकारिक तौर पर तिब्बती समस्या के समाधान के लिए कोई गंभीर प्रयत्न नहीं किया । वर्ष 1978 में चीन की तरफ से देंग जियाओपिंग ने वार्तालाप की इच्छा प्रकट की थी इसके बावजूद कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकला । तिब्बतियों की हर पहल एक तरह से निरर्थक सिद्ध हो गई। सन 1993 में चीन से निर्वासित तिब्बतियों (Tibetans In Exile) का औपचारिक संपर्क भी टूट गया। एक बार दलाई लामा के बड़े भाई ग्यालो थोंडुप ने व्यक्तिगत रूप से बीजिंग (Beijing) की यात्रा की और वहां से संयुक्त मोर्चा विभाग से संदेश भी लाए पर उसमें भी कुछ नहीं था। इतिहास का यह कठोरतम सत्य है कि दमनकारी नीतियों का मुकाबला शांति से नहीं किया जा सकता जिसे चीन ने साबित कर दिया है । हैरत है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय भी चुप है । क्या कोई बताएगा कि यह कौन सी दुनिया है जहां मानवता के आंसू इस तरह बहते हैं..और क्या इसके लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय भी जिम्मेदार नहीं है…?