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जैव विविधता अधिनियम के क्रियान्वयन से हाईकोर्ट नाखुश, AG से पैरवी की मांग
शिमला। जैव विविधता अधिनियम-2002 (Biodiversity Act 2002) के क्रियान्वयन को लेकर हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट ने वन विभाग की कार्यप्रणाली से असंतोष जताते हुए भारत के अटॉर्नी जनरल (AGI) से मामले की पैरवी करने का आग्रह किया है। अदालत ने पर्यावरण और वन मंत्रालय को प्रतिवादी बनाते हुए सचिव से भी जवाब मांगा है।
मुख्य न्यायाधीश एमएस रामचंद्र राव और न्यायाधीश अजय मोहन गोयल की खंडपीठ ने मामले की सुनवाई 18 सितंबर को निर्धारित की है। पीपुल फॉर रिस्पांसिबल गवर्नेंस ने जैव विविधता अधिनियम-2002 के क्रियान्वयन को लेकर हाईकोर्ट में याचिका दायर की है। याचिका में आरोप लगाया गया है कि राज्य सरकार इस अधिनियम के प्रावधानों को लागू करने में पूरी तरह से विफल रही है। यह अधिनियम राज्य को स्वयं के जैविक संसाधनों का उपयोग करने के लिये उनके संप्रभु अधिकारों को मान्यता प्रदान करता है। अधिनियम ने जैव संसाधनों तक पहुंच और विनियमित करने के लिये त्रिस्तरीय संरचना का प्रावधान किया गया है। इसमें राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण, राज्य जैव विविधता बोर्ड और स्थानीय स्तर पर जैव विविधता प्रबंधन समितियों का गठन किया गया है।
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एनओसी लेने के आदेश दिए थे
पिछले आदेशों में अदालत ने वन, आयुष और कृषि विपणन बोर्ड को जैविक संसाधनों के इस्तेमाल के लिए जैविक बोर्ड (Biodiversity Board) से अनापत्ति प्रमाण पत्र (NOC) लेने के आदेश दिए थे। अदालत ने स्पष्ट किया था कि आयुर्वेदिक, सिद्धा, यूनानी और होम्योपैथी दवाइयों को निर्यात परमिट जारी करने से पहले एनओसी जारी करनी होगी। अदालत को बताया गया था कि राज्य सरकार की ओर से संबंधित कंपनियों को जैविक विविधता अधिनियम की धारा-7 में नोटिस जारी किया जा रहा है। हालांकि, अधिनियम की धारा-23 और-24 में राज्य जैव विविधता बोर्ड से अनुमति लेने का प्रावधान है। यदि कोई कंपनी जैविक संसाधनों को बिना स्वीकृति से इस्तेमाल करती है तो उस स्थिति में अधिनियम की धारा-56 में एक लाख रुपये जुर्माने की सजा का प्रावधान है। याचिकाकर्ता ने अदालत को सुझाव दिया था कि राज्य सरकार की ओर से दिए जाने वाले नोटिस में ये सारे आदेश होने चाहिए। संबंधित कंपनियों को आदेश दिए जाए कि प्रदेश के जैविक संसाधनों का इस्तेमाल करने के लिए राज्य जैव विविधता बोर्ड से स्वीकृति ली जाए।