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देव परंपराः पझौता घाटी के पैण गांव से चूड़धार गई शिरगुल महाराज की जातर लौटी वापस
गोपाल शर्मा/ राजगढ़। हिमाचल प्रदेश को देव भूमि के नाम से जाना जाता है यहा हर गांव में किसी ना किसी देवी देवता का मंदिर अवश्य ही दिखने को मिल जाता है, जिसे कुल देवता ,ग्राम देवता या किसी अन्य नाम से पुकारा जाता है अलग-अलग गांव में अलग अलग देवी या देवता के मदिर बने है और हर मंदिर का अपना अलग इतिहास एवं परंपरा है और स्थानीय लोग इन परंपराओं का निर्वहन आज भी करते है और यहां लोगों की अपने कुल देवता या ग्राम देवता के प्रति गहरी आस्था एवं श्रद्धा है। इसी कड़ी में पझौता घाटी के पैण गांव से शिरगुल महाराज की जातर हर तीसरे वर्ष चूडधार जाती है, जिसमें सभी ग्रामीण जो शिरगुल महाराज को अपना कुल देवता या ग्राम देवता मानते हैं, शामिल होते हैं। तीन दिन पहले निकली ये जातर आज वापस पहुंची है।
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इस जातर में देवता महाराज की मूर्ति को पालकी मे बिठा कर पांरपरिक वाद्य यंत्रों के साथ पैदल चूड़धार ले जाया जाता है। स्थानीय निवासी विरेंद्र ठाकुर के अनुसार पहली रात्रि को यह जातर भैरोग नामक स्थान पर विश्राम करती है और दूसरे दिन सुबह चूडधार के लिए निकलती है। दूसरी रात्रि को चूड़धार मे विश्राम करने के बाद तीसरे दिन चूडधार में पांरपरिक देव स्नान के बाद जातर वापिस लौटती है और तीसरे रात्रि को भी जातर जंगल में ही विश्राम करती है। चौथे दिन सुबह पुनः जातर की यात्रा पैण गांव के लिए आरंभ होती है और पैण गांव से कुछ दूरी पर धार नामक स्थान पर शिरगुल महाराज की औडी है, उस स्थान पर जातर विश्राम के लिए रुकती है और वहां स्थानीय भाषा में लिबर गायन होता है। लिबर गायन में शिरगुल महाराज का मुगलों शासकों से युद्व करने के लिए दिल्ली जाना व चुडिया दानव का उनके पीछे चूडधार पर आक्रमण करना,व शिरगुल महाराज के सेवक चूडू द्वारा आक्रमण का संदेश एक पत्थर के माध्यम से शिरगुल महाराज को दिल्ली भेजना व संदेश पढ़कर शिरगुल महाराज का वापस आकर चुडिया दानव का अंत करने का वर्णन मिलता है। यहां आज भी जातर के वापस आने पर स्थानीय लोगों द्वारा इस लिबर का पहाड़ी बोली में गायन किया जाता है, जिसके बाद जातर पैण गांव पहुंचती है और शिरगुल महाराज की मूर्ति को सभी पंरपराओं का निर्वहन करते हुये मंदिर मे पुनं स्थापित किया जाता है ।
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