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तिब्बती नव वर्ष लोसर का महत्व और इतिहास
लोसर तिब्बत के बौद्ध अवलंबियों का प्रमुख पर्व है, पर इसको मनाने वाले अरुणाचल प्रदेश से नेपाल होते हुए उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर की उत्तरी सीमाओं तक फैले हुए हैं। संक्षेप में कहें तो यह भारत की उत्तरी सीमा पर उत्साह के साथ मनाया जाने वाला पर्व है जो बौद्ध संवत् के अनुसार वर्ष के पहले माह की पहली तिथि को मनाया जाता है। तिब्बती कैलेंडर के अनुसार भी यह वर्ष के पहले महीने का पहला दिन होता है। विश्व में जहां कहीं भी बौद्ध लोग बसे हुए हैं वहां यह पर्व मनाया जाता है। लोसर (Losar) का अर्थ नया साल होता है। लो यानि—वर्ष, सर—नया जो मिलकर बनता है नव वर्ष। लोसर का इतिहास बताता है कि यह तिब्बत के नवें काजा पयूड गंगयाल के समय वार्षिक बौद्धिक त्योहार के रूप में मनाया गया पर एक अंतराल लेकर यह पारंपरिक फसली त्योहार (Traditional crop festival) में बदल गया। वह एक ऐसा दौर था जब तिब्बत में खेत की जुताई की कला विकसित हुई साथ ही सिंचाई व्यवस्था और पुलों का विकास भी हुआ। बाद में लोसर को ज्योतिषीय आधार देकर इसे नव वर्ष के रूप में मनाया जाने लगा।
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यह त्योहार पचैद का स्टेग के शुरू में मनाया जाता है। मूलतः यह तिब्बती समुदाय का प्रमुख धार्मिक उत्सव है जिसे ये लोग उसी उल्लास से मनाते हैं जैसे हिंदुओं में दीपावली या होली का पर्व मनाया जाता है। तिब्बत में लोसर बौद्ध धर्म के आरंभिक काल से मनाया जाता रहा है। पहले इस उत्सव को देवी-देवता तथा भूत-प्रेतों को खुश करने के लिए मनाते थे, पर अब यह इनका नववर्ष है। वर्ष में कौन सा महीना पचैद का स्टेग होगा इसे लेकर तीन धारणाएं परंपरा में हैं। कुछ इसे वर्ष का ग्यारहवां महीना ,कुछ बारहवां और कुछ इसे वर्ष का पहला महीना मानते हैं ग्यारहवां महीना चीन की राजकुमारी कोजी से जुड़ता है। जिसने सोंगस्टन गेंपो राजा से विवाह किया था। बारहवें महीने के पहले दिन मनाने का कारण यह है कि तब राजा त्रिसांग दयुस्टन ने तिब्बत में इस्तीफा दिया था। तीसरी परंपरा के अनुसार लोसर वर्ष के पहले माह के पहले दिन मनाया जाता है। वर्ष के अंतिम माह की शुरुआत से ही लोग इसकी तैयारियां करने लगते हैं। तिब्बतियों में एक आम कहावत है लोसर इज लेसर जिसका अर्थ है नया साल नया काम। इस पर्व के मुख्य व्यंजनों में ताजा जौ का सत्तू, फेईमार ग्रोमां, ब्राससिल, लोफूड तथा छांग हैं। इस दिन घरों की साफ सफाई करते हैं तथा रंगरोगन कर घरों को सजाते हैं।
त्योहार के दिन नए कपड़े पहन कर लोग इस पर्व को मनाते हैं खास कर बच्चों के लिए अवश्य नए कपड़े बनते हैं । रसोई की दीवारों पर एक या आठ शुभ प्रतीक बनाए जाते हैं तथा घरेलू बर्तनों के मुंह ऊन के धागों से बांध दिए जाते हैं। रोचक ही है कि इस दिन छोटी-मोटी दुर्घटनाओं को तिब्बती लोग शुभ मानते हैं। तिब्बत के अति दुर्गम क्षेत्रों में लोसर से पूर्व पशुओं का सामूहिक वध करने की परंपरा है जिनमें याक, भेड़ और बकरियां होती हैं। स्त्रियां इस दिन सुबह पानी भरने जाती हैं और पानी के स्रोत के पास धूप जलाकर प्रार्थना करती हैं फिर घर आकर उबली हुई छांग घर के प्रत्येक सदस्य को देती हैं।
सभी सदस्य पंक्ति में बैठ कर पाठ करते हैं फिर उन्हें चाय के साथ मिठाइयां भी परोसी जाती हैं जिसे स्थानीय भाषा में डकार स्प्रो कहते हैं अपने घरों में यह समारोह समाप्त होने पर लोग तशीदेलेक कहते हुए पड़ोसियों के घरों में जाते हैं और लोसर की बधाई देते हैं । कुछ स्थानों पर यह त्योहार एक सप्ताह तक चलता है पर आम तौर पर तीन दिन तक ही चलता है। कुछ लोग इस दिन शादी रचाना भी शुभ मानते हैं। इस मर्तबा ये 24 से 26 फरवरी के बीच मनाया जाएगा।