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देवी मां का अद्धभुत शक्तिपीठ, सदियों से बिना तेल-बाती के जल रही है ज्योति
सनातन धर्म में नवरात्र (Navratri) के नौ दिन मां दुर्गा के विभिन्न स्वरूपों की पूजा-अर्चना की जाती है। आज हम आपको ऐसे एक देवी के मंदिर के बारे में बताएंगे, जो चमत्कारों से भरा हुआ है। इस मंदिर में माता की 9 पावन ज्योति बिना तेल और बाती के जलती रहती हैं। वैज्ञानिक भी आज तक इस बात का पता नहीं लगा पाए हैं कि आखिर ये ज्योति जसती कैसे हैं।
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बता दें कि देवी मां का ये चमत्कारी मंदिर हिमाचल प्रदेश (Himachal Pradesh) में स्थित है। इस मंदिर को ज्वाला देवी के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर से लाखों लोगों की श्रद्धा जुड़ी हुई है। मां ज्वाला देवी में अनंतकाल से जल रही पावन 09 ज्योति कोमाता के 09 स्वरूपों के रूप मानकर पूजा की जाती है। मान्यता है कि इस शक्तिपीठ में सबसे बड़ी ज्योति को मां ज्वाला कहा जाता है। जबकि, बाकी आठ ज्योति को देवी अन्नपूर्णा, देवी विंध्यवासिनी, देवी चंडी, देवी लक्ष्मी, देवी हिंगलाज, देवी सरस्वती, देवी अंबिका और देवी अंजी के रूप में पूजा जाता है।
सती की जलती हुई जीभ
पौराणिक कथाओं के अनुसार, यहां एक बार राजा दक्ष ने हरिद्वार स्थित कनखल यज्ञ का आयोजन किया। इस यज्ञ में उन्होंने सभी देवी-देवताओं को आमंत्रित किया, लेकिन भगवान शिव को आमंत्रित नहीं किया। वहीं, जब माता सती अपने पिता राजा दक्ष के यज्ञ में पहुंची तो उन्होंने वहां पर भगवान शिव (Lord Shiva) का अपमान महसूस किया। इसी बीच माता सती ने अग्निकुंड में कूदकर अपने प्राण त्याग दिेए।
इसके बाद जब ये बात भगवान शिव को पता चली तो वे माता सती का पार्थिव शरीर कंधे पर लेकर तीनों लोक मे विचरण करने लगे। जिसके चलते भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर के 51 टुकड़ें कर दिए। माना जाता है कि सती के शरीर के ये टुकड़े जहां-जहां गिरे, वो सारे स्थान शक्तिपीठ बन गए। कहा जाता है कि हिमाचल प्रेदश में माता सती क जलती हुई जीभ गिरी थी, जो आज ज्वाला देवी मंदिर के नाम से जानी जाती है।
अकबर ने चढ़ाया था सोने का छत्र
कहा जाता है कि मुगल काल में अकबर (Akbar) ने इस ज्वाला देवी की अखंड ज्योत को बुझाने के लिए एक नहर बनाकर बुझाने की कोशिश की। हालांकि, ज्योति बुझी नहीं और पानी के ऊपर जलने लगी। जिसके बाद देवी की शक्ति के आगे नतमस्तक होकर राजा अकबर ने देवी को सोने का छत्र चढ़ाया। कहा जाता है कि देवी द्वारा छत्र को स्वीकार नहीं किया गया, जिसके चलते वे अन्य धातु में बदल गया। ये छत्र आज भी मां ज्वाला देवी के मंदिर में है।