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कुल्लू दशहरा: वर्षों पुरानी परंपरा के पीछे छिपे हैं कई राज
कुल्लू। देशभर के बाकी हिस्सों में जब (Dussehra Festival) दशहरा का त्योहार खत्म हो जाता है तब जाकर कुल्लू का दशहरा (Kullu Dussehra) उत्सव एक सप्ताह के लिए शुरू होता है। इस उत्सव में देवी-देवता शामिल होते हैं। इस परंपरा के पीछे कई राज छुपे हुए हैं। इसलिए ही अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा काफी प्रसिद्ध है। कुल्लू में इस त्योहार के समय लोगों में काफी उत्साह दिखाई देता है। कहते हैं कि 17वीं शताब्दी में राजा जगत सिंह अयोध्या से भगवान रघुनाथ की एक मूर्ति अपने साथ कुल्लू ले आए थे, फिर उन्होंने उस मूर्ति को कुल्लू के महल मंदिर में स्थापित कर दिया।
करीब 300 देवी-देवता भाग लेने आते हैं
धूमधाम से मनाए जाने वाले इस उत्सव में करीब 300 देवी-देवता भाग लेने आते हैं। ये सभी श्री रघुनाथ भगवान को अपनी श्रद्धा अर्पित करते हैं। दशहरा का यह उत्सव माता हडिम्बा (Mata Hadimba) के आगमन से शुरू होता है। उत्सव के दौरान भारी संख्या में देश व विदेश से पर्यटक यहां आते हैं।
ब्राह्मण के आत्मदाह का दोष राजा पर लगा था
कहा जाता है कि राजा जगत सिंह (Raja Jagat Singh) के शासनकाल में मणिकर्ण घाटी के गांव टिप्परी में एक गरीब ब्राह्मण रहता था। उस गरीब ब्राह्मण ने राजा जगत सिंह की किसी गलतफहमी के कारण आत्मदाह कर लिया था। ब्राह्मण के इस आत्मदाह का दोष राजा पर लगाए जिसकी वजह से राजा को एक असाध्य रोग भी हो गया था। वहीं असाध्य रोग से ग्रसित राजा को एक बाबा ने सलाह दी कि अगर वह अयोध्या के त्रेता नाथ मंदिर से भगवान राम, माता सीता और हनुमान जी की मूर्ति लाएं और अपना सारा राजपाट भगवान रघुनाथ को सौंप दें तो उन्हें इस दोष से मुक्ति मिल जाएगी।
दोष मुक्ति के बाद राजा ने शुरू की थी ये परंपरा
इसी के चलते राजा ने 1653 में रघुनाथ जी (Raghunath Ji) की प्रतिमा को मणिकर्ण मंदिर में रखा और वर्ष 1660 में इसे पूरे विधि-विधान से कुल्लू के रघुनाथ मंदिर में स्थापित कर दिया। इसके बाद राजा को दोष से मुक्ति मिल गई। श्री रघुनाथ जी के सम्मान में ही राजा जगत सिंह ने वर्ष 1660 में कुल्लू में दशहरे की परंपरा शुरू की जो आज भी बराबर निभाई जा रही है।