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हिमाचल में वर-वधू का रिश्ता तय होने से विवाह तक चलता है गीत- संगीत का दौर
कांगड़ा। आज डिजिटल युग (Digital Age) है। एक क्लिक से किसी भी चीज का आप ऑर्डर (Order) कर सकते हो। इस डिजिटल युग ने जहां आदमी को सुख-सुविधाएं प्रदान (Provide Amenities) की वहीं उसकी पुरानी परंपराओं को भी लील लिया है। देवभूमि हिमाचल में परंपराएं, रीति-रिवाज भी अपनी पावनता लिए हुए हैं। हालांकि भौगोलिक दृष्टि से हिमाचल की बनावट एक जैसी नहीं है, तो उसी प्रकार परंपरांओं (Tradition) का निवर्हन भी वैसा ही है। हिमाचल की शादी का विशेष रोमांच होता है। पहले अगर किसी के घर में शादी-विवाह होता तो शायद एक साल पहले ही परंपराओं का निवर्हन शुरू हो जाता था।
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अब कांगड़ा क्षेत्र में होने वाली शादियों की बात करें तो कन्या और वर पक्ष का रिश्ता होने से लेकर विवाह तक अनेक रस्में निभाई जाती हैं। फिर रिश्ते करने वाला दिन हो या फिर कन्या पक्ष के घर में बारात आने का दिन। हर रस्म को पावनता से निभाया जाता है। इसी अंतराल में ना जाने कितनी परंपराओं का निवर्हन किया जाता है। इन्हीं में एक परंपरा है गीत-संगीत की। यह गीत-संगीत की परंपरा उसी दिन से शुरू हो जाती है जब कन्या और वर पक्ष के दोनों परिवारों की सहमति और पंडित के कुंडली मिलान से वर और वधू का रिश्ता तय हो जाता है। इसदिन कई प्रकार के शगुनों का आदान-प्रदान किया जाता है और उसी रात को दोनों पक्षों के घरों में घोड़ी और सुहाग के गीत गाए जाते हैं। कांगड़ी बोली के गीत बड़े ही रसीले और मधुर होते हैं।
लड़की पक्ष वाले इस रात को गीत-संगीत का आयोजन करते हैं और गांव की महिलाएं (Women) आकर सुहागों की मधुर बरसात करती हैं। कन्या पक्ष (Virgo side) की ओर से गाए जाने वाले गानों में जहां विदाई और बिछोह का दर्द भरा होता है और उसी प्रकार के सुहाग गाए जाते हैं, वहीं दूसरी तरफ वर पक्ष के गानों में खुशी और आनंद का इजहार होता है। यह गीत-संगीत का दौर काफी देर तक चलता है और महिलाएं नाचा-गाना कर खूब आनंद करती हैं। उसके बाद बारी आती है उन्हें मिष्ठान परोसने की। इस मिष्ठान में लड्डू, फूलियां, तली हुई रोटियां, हलवा (Laddus, pholis, fried rotis, pudding) वगैरह कुछ भी हो सकता है। वहीं यह दौर पहले साल भर चला रहता था। ऐसा इसलिए किया जाता था कि बुजुर्गों की आस्था होती थी कि जिस घर में ऐसी परंपराओं का निवर्हन किया जाता है उस घर में वर और वधू दोनों ही सुखी रहते हैं और उन्हें अपने संस्कार अपनाने में भी आसानी होती है।
गानों में ही कुछ ऐसे संदेश दिए जाते हैं कि जिनका मकसद यह होता था कि वर और वधू इनका अनुसरण करें तो उनका वैवाहिक जीवन अति सुखद हो सकता है। वहीं शादी वाले दिन जब दूल्हा बारात लेकर वधू पक्ष के घर में पहुंचता है तो गानों में शरारत भरे तानों का भी समावेश किया जाता है ताकि दूल्हे पक्ष को लगे कि आप हमारी कन्या को ब्याह कर ले जा रहे हैं तो हमें खुशी के साथ चिढ़ भी है। इसमें दूल्हे के रिश्तेदारों को टारगेट किया जाता है। जिसमें उसके पिता, ताया, चाचा, मामा और फूफा आदि शामिल रहते हैं। आजकल तो यह सब डीजे ने खत्म कर दिया है और कानफाड़ू आवाज से मन परेशान हो जाता है। मगर पहले जब गानों के साथ विवाह की परंपराएं निभाई जाती थीं तो ऐसा लगता था कि देवलोक में कोई धार्मिक आयोजन हो रहा हो। जब वेद आदि की रस्में निभाई जाती थीं तो सुहाग भी उसी दिशा में टर्न हो जाते थे।
सीधा ब्रह्मा, विष्णु और महेश का आह्वान किया जाता था, ताकि उनके साक्षात सान्निध्य में वर और वधू का विवाह संपन्न हो। वहीं जो पंडित शादी का पावन संस्कार (Sacred Rites) संपूर्ण करवाता है वह भी मंत्रोच्चारण द्वारा सभी देवताओं का आह्वान करता है। विदाई के बाद दूल्हे के घर में गोत्र आदि की परंपराएं निभाई जाती हैं। इसमें वधू को सभी देवी-देवताओं का पूजन करवाने के बाद उस गांव की महिलाओं के साथ खाना खिलाया जाता है। इस परंपरा को गोत्र में मिलाना होता है। इस परंपरा का मकसद यह होता है कि वधू अब हमारे परिवार का हिस्सा हो चुकी है और हमारे संस्कारों को भी अपना ले।