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द्रौपदी (Draupadi) ने जीवन में कई कठिनाइयों का सामना किया। उसे पांचाली भी कहा जाता था। पांडवों (Pandavas) ने कौरवों के साथ जुआ खेला और उन्हें उन्हे वनवास (Exile) मिल गया। इस वनवास काल के दौरान द्रौपदी को कई समस्याएं आई मगर हर समय श्रीकृष्ण भगवान ने उनकी सहायता की। जब दुर्योधन और दुशासन भरी सभा में द्रौपदी का चीरहरण करने लगे तब भी श्रीकृष्ण (Lord Shree Krishna) ने उनकी सहायता की और उसकी लाज रखी। इसी तरह श्रीकृष्ण ने एक बार फिर द्रौपदी की लाज रखी। दरअसल दुर्योधन हर तरीके से पांडवों को प्रताड़ित करना चाहता था। इसलिए वह नई-नई योजनाएं दिमाग में बनाता रहता था।
एक दिन उसने दुर्वासा ऋषि को अपने एक हजार शिष्य के साथ भोजन करने के लिए भेज दिया। जब दुर्वासा ऋषि द्रौपदी के पास पहुंचे तो सभी पांडव और स्वयं द्रौपदी भी भोजन कर चुकी थी। ऐसे में दुर्वासा (Durvasa Rishi) ऋषि ने भोजन करने की इच्छा जता दी। द्रुपद की बेटी द्रौपदी धनुष यज्ञ में अर्जुन द्वारा जीते जाने पर पांडवों की पत्नी बनी। कौरवों से जुए में हार के बाद मिले वनवास में वह पांडवों के साथ थी। इसी समय दुर्योधन के कहने पर ऋषि दुर्वासा द्रौपदी की परीक्षा लेने अपने दस हजार शिष्यों के साथ पांडवों के पास पहुंच गए। चूंकि पांडवों के पास भगवान सूर्य के चमत्कारिक पात्र से तब तक ही भोजन प्राप्त करने का वरदान था जब तक द्रौपदी भोजन नहीं कर लेती।
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ऐसे में भोजन कराना संभव नहीं जान पांडव ऋषि के शाप की आशंका से चिंता में पड़ गए। पर हमेशा की तरह इस संकट में भी द्रौपदी ने भगवान श्रीकृष्ण को ही याद किया। भक्त की पुकार सुन भगवान भी तुरंत वहां पहुंच गए। इस समय ऋषि दुर्वासा शिष्यों सहित स्नान के लिए नदी पर गए हुए थे। श्रीकृष्ण ने भी आते ही भूख लगने की बात कहकर भोजन ही मांग लिया। ये सुन द्रौपदी ने शर्म से सिर झुकाकर सारा भोजन खत्म होने की बात कहीं, इस पर कृष्ण ने द्रौपदी को भोजन का पात्र लाने को कहा। जब द्रौपदी वह पात्र लेकर आईं तो उस पर चावल का एक दाना बचा हुआ मिला, श्रीकृष्ण ने वही दाना खा लिया। परब्रह्म के उस एक दाने के खाने से ही ब्रह्माण्ड के सभी जीवों का पेट भर गया। जिसके बाद दुर्वासा ऋषि अपने शिष्यों सहित वापस वहां से लौट गए। इस तरह भगवान श्रीकृष्ण ने द्रौपदी की वनवास में भी लाज रखी।
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